दादाजी कहा करते थे.... बेटियां चिड़िया सी होती है...पर आने पर उड़ जाएगी किसी पराये देश....यह घोंसला सूना हो जाएगा....
बातें लगती थी... अब यथार्थ है.... पंख निकलते ही उड़ गई....घोंसला सूना है... पर "पराये देश" की बात अब समझ आई... सच में इस पुरुष प्रधान समाज मे बेटियों का कोई वजूद नहीं.... हृदय दर्द से पिघला जा रहा है...
उस घोंसले में उनकी यादें अविस्मरणीय है, कहीं किसी दीवार पर अंकित उनकी निशानी, नीम की छांव में इक्कठे बैठ कर लड़ना झगड़ना.... आंगन गलियारे में हंसी ठिठोली...सब जगह अनन्त स्मृतियां है....
अब अगर कभी लौट कर आ भी जाती है तो घोंसले में कहां बैठ पाती है शुकुन से... वो तो किसी डाली पर रात बसेरा कर सुबह को लौट जाती उस पराये देश जहां वो तिनका तिनका जोड़ कर बना रही है एक घोंसला अपने नन्हे परिंदों के लिए यह जानते हुए भी कि उस घोंसले में भी उसका कोई वजूद नहीं रहने दिया जाएगा.... एक रोज जब उसके पंख थक जाएंगे उड़ान भरते भरते.... नहीं मिलेगी पनाह उस घरोंदे में जिसको बनाया है उसने खुद को गला कर... न जाने कितनी बार गिर गया होगा तिनका.. उसकी चोंच से... नहीं पढ़ पायेगा कोई उसके मनोभावों को...
तब यूँ ही गिर पड़ेगी एक रोज डाल पे बैठी बैठी.... चली जाएगी दूर बहुत दूर किसी अनजाने देश में.... मुझे भी जाना है सुदूर देश.... देखना है बेटियों का अपना घोंसला.... जो सिर्फ उनका है... उनका अपना... जहां हक से रहती होगी वो... नहीं करना पड़ता होगा बसेरा किसी डाली पर.... समेट कर परों को आँचल में छिपा लेती होगी अपने नन्हे परिंदों को सहज भाव से...
शायद दादा की वो बात झुठला पाऊंगा... कहूंगा उनसे कि नहीं बेटियां नहीं है पराये देश की चिड़िया।

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