हो सकता है आप मेरे विचारों से सहमत ना हो....
बड़े अरसे बाद गांव लौटा हूँ... इस लॉक डाउन में बहुत कुछ करीब से जानने का मौका मिला...बचपन में ही गांव से दूर चला आया था शहर की ओर...
गांव को किताबों में ही पढ़ पाया...
लेकिन अब वैसा कुछ नहीं है जैसा हम सब किताबों में पढ़ते आये हैं...
एक दिन सवेरे सवेरे नींद खुली तो पाया कि अब गांव पहले वाला गांव नहीं रहा...
इंसान जिंदा है, लेकिन इंसानियत मर चुकी है... लोग रास्ते पर चलने से रोकने लगे हैं... बेटे, मां- बाप के हत्यारे बन रहे हैं... अपणायत(अपनापन) तो बस शब्दों में ही सुनने को मिलता है... लोग किसी दुसरे के साथ बुरा या अनहोनी होने पर खुश होने लगे हैं...
विचारों का बताऊं....? अरे क्या करोगे जान कर.... अब तो सिर्फ गांव की हवा ही शुद्ध रह गई है.... विचार तो शहरों से भी अधिक प्रदूषित है... "शहरीकरण" में पढ़ा था लोग रोजगार के अभाव में गांवों से शहर में जा बसे... लेकिन साथ ही साथ इंसानियत भी ले गए...(ऐसा भी नहीं है कि कायनात की सम्पूर्ण इंसानियत शहरों में ही बसती है)... मुझे व्यक्तिगत रूप से एक बात शहरी लोगों की अच्छी लगी कि वे खुद के जीवन को बेहतर बनाने में समय व्यतीत करते हैं... परस्पर मिलने पर राजनीतिक मुद्दों पर चर्चा हो जाती है... या फिर पारिवारिक मुद्दों पर सलाह मशविरा कर लेते हैं... लेकिन गांव अब बहुत बदल गया है... यहां लोगों के पास समय ही समय है, खुद के उत्थान के लिए नहीं... बल्कि दूसरों के साथ जो गलत या अनहोनी हुई है उसकी खिल्ली उड़ाने का...किसी का अहित करने का, किसी के परिवार में आपसी फूट डालकर लड़ाई झगड़ा करवाने का... यहां खुद की गलतियों पर गौर करने का समय नहीं है लेकिन दूसरों की गलतियों पर ठहाके मार कर हँसने का भरपूर समय है.... सच में बहुत कुछ बदल गया है... अब गांवों में पहले वाली बात नहीं रही....
0 टिप्पणियाँ