विस्तार बिंदु:-
1. अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य की आवश्यकता ।
2. इसके पक्ष एवं विपक्ष में तर्क - वितर्क ।
3. उत्तरदायित्व के साथ स्वतंत्रता ।
4. सीमित अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता मनुष्य के व्यक्ति के विकास में सहायक ।
5. निष्कर्ष ।
नवजात शिशु का क्रंदन बाहरी दुनिया के प्रति उसकी प्रतिक्रिया की अभिव्यक्ति है । अभिव्यक्ति की इच्छा किसी व्यक्ति की भावनाओं , कल्पनाओं एवं चिंतन से प्रेरित होती है और अपनी - अपनी क्षमता के अनुरूप होती है । अपनी भावना या अपने मत को अभिव्यक्त करने की आकांक्षा कभी - कभी इतनी प्रबल हो जाती है । कि मनुष्य अकेला होने पर अपने - आपसे बातें करने लगता है । परंतु , अभिव्यक्ति की निर्दोषता या सदोषता का सवाल तभी खड़ा होता है , जब अभिव्यक्ति संवाद का रूप ग्रहण करती है व्यक्तियों के बीच या समूहों के बीच ।
विचारों का आदान - प्रदान मानव सभ्यता के साथ शुरूआत से ही जुड़ा हुआ विचारों के आदान - प्रदान से मानव का वैयक्तिक विकास तो होता ही है , समाज की सामाजिकता भी इसी से बनती है और उसका विकास भी होता है । वैसे , शायद ही कभी सभ्यता के इतिहास में अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दी गई हो , यद्यपि हर युग में प्राधिकार ऐसे दावे करते रहे हैं ।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अभिप्राय दो प्रकार के संवादों से है एक तो मीडिया के द्वारा सूचनात्मक और दूसरा व्यक्ति के स्तर पर विचारों या मतों का प्रकाशन । इसमें कोई संदेह नहीं कि सूचनाओं के स्वतंत्र प्रसार से समस्त राष्ट्र प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है विशेषकर आर्थिक एवं वैज्ञानिक प्रसंगों में और प्रजातंत्र में ' प्रेस ' को एक सचेतक कहा गया है , जो समस्त राजनीतिक दुर्व्यापारों पर कड़ी निगरानी रखता है , प्रजातंत्र को सही दिशा देता है । प्रजातंत्र में प्रेस दोहरी भूमिका निभाता है एक ओर वह किसी रचनात्मक प्रवृत्ति के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाता है और जनमत से सरकार को परिचित कराता है तथा दूसरी ओर , सरकार की नीतियों एवं कार्यक्रमों से वह जनता को परिचित कराता है । यदि सरकार की नीतियां एवं कार्यक्रम राष्ट्रीय एवं सामाजिक हित में हैं , तो प्रेस के माध्यम से सरकार को जन - समर्थन भी मिलता है ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
परंतु , सूचनाओं के प्रस्तुतीकरण पर किसी न किसी प्रकार के पूर्वाग्रह चाहे वह राजनीतिक हों या प्रजातीय हों अथवा सामाजिक पूर्वाग्रह हों , के प्रभाव की संभावना रहती ही है । इसी से , कभी - कभी किसी ' समाचार ' को दुर्भावना से प्रेरित घोषित कर दिया जाता है । प्रेस पर सेंसरशिप या संपादकीय विनियमन का प्रसंग मुख्यतः उन मुद्दों पर उठता रहा है , जिन पर सरकार की नीति की आलोचना की सबसे अधिक संभावना बनी रहती है । परंतु , अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता तो संसार में कहीं है ही नहीं । हमारा संविधान भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो देता है , परंतु कुछ ' हिदायतों ' के साथ कि उस अभिव्यक्ति का प्रभाव देश की एकता , अखण्डता एवं सम्प्रभु पर नहीं पड़ना चाहिए ; सामाजिक व्यवस्था या सौहार्द को ठेस नहीं पहुंचनी चाहिए , न्यायालय की अवमानना नहीं होनी चाहिए और अभिव्यक्ति दुर्भावनापूर्ण नहीं होनी चाहिए ।
कोई भी व्यक्ति गाली देने या किसी को अपमानित करने की स्वतंत्रता दिए जाने की वकालत नहीं कर सकता । परंतु , किसी व्यक्ति के विचारों , दृष्टिकोणों एवं धारणाओं की अभिव्यक्ति की युक्तियुक्तता पर नियंत्रक उपाय लगाना बड़ा मुश्किल काम है । हर आदमी यह सोचता है कि उसके विचार स्वतंत्र हैं , किंतु क्या इन सभी स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति को स्वतंत्रता देना उचित होगा ?
कोई भी अधिकार प्राप्त करना तभी संभव हो पाता है जब उत्तरदायित्व लेने की इच्छा तथा दृढ़ता हो ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी कई उत्तरदायित्व साथ लेकर आती है । यदि कोई भी समाज इन उत्तरदायित्वों की पूर्ति करने में अक्षम है तो वह समाज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकारी कैसे हो सकता है ? यदि किसी व्यक्ति की अभिव्यक्ति से परिवार , समाज या देश में किसी भी प्रकार का नकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो क्या ऐसी अभिव्यक्ति का दमन उचित नहीं ? आज का युग सोशल मीडिया का युग है । किसी भी देश , समुदाय , जाति , उम्र , लिंग , शैक्षणिक स्तर वाले सभी व्यक्ति सोशल मीडिया का प्रयोग कर रहे हैं । इस तथ्य से एक महत्वपूर्ण बात यह आती है कि यह मीडिया समाज को सकारात्मक सोच से ओत - प्रोत करने के साथ - ही - साथ ऐसे विचारों से भी भर रहा है जो कि नकारात्मक हैं । समाज , देश , मानवता के लिए विघटनकारी हैं । अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को एक सीमा में बने रहना अति आवश्यक है अन्यथा द्वेषपूर्ण , हिंसात्मक , विघटनकारी विचारों के प्रसार में अधिक समय नहीं लगता । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू यह भी है कि कौन व्यक्ति किस स्थिति तथा किस स्थान पर कौन - सी बात कह रहा है । यह व्यक्ति के इर्द - गिर्द मौजूद समुदाय पर तो निर्भर करता ही है परंतु इस पर बात भी निर्भर करता है कि वह व्यक्ति किन विचारों वाला है या वह किस मानसिक स्थिति से गुजर रहा है । क्योंकि यह भी निश्चित नहीं है कि जो व्यक्ति या वस्तु या स्थिति किसी के अनुसार आज खराब है , भविष्य में भी उस व्यक्ति के लिए बुरी ही होगी । ऐसे में किसी भी व्यक्ति , दल , समुदाय को अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता दे देना विध्वंसकारी ही होगा ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
मार्च 2015 को सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66 क को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करने वाला बताते हुए निरस्त कर दिया । उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि इस धारा को समाप्त करना ही होगा , क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगने वाले उचित प्रतिबंधों की परिधि से आगे चली गई है । न्यायालय ने यह तर्क भी मानने से इनकार कर दिया कि अनुच्छेद 19 ( 2 ) सार्वजनिक व्यवस्था को देखते हुए वाक् व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर लगे युक्तियुक्त निर्बंधन के संगत है । न्यायालय के अनुसार , धारा 66 क संविधान के इस अनुच्छेद का उल्लंघन करती है । लेकिन अपना निर्णय सुनाते हुए पीठ ने सरकार को अनुमति दी कि वह उन वेबसाइटों को ब्लॉक कर सकती है , जो सांप्रदायिक तनाव , सामाजिक वैमनस्य फैला रही हों या दूसरे देशों के साथ भारत के संबंधों को प्रभावित कर रही हों ।
न्यायालय ने कहा , ' हमारा संविधान विचार , अभिव्यक्ति एवं धर्म की आजादी प्रदान करता है । किसी भी लोकतंत्र में ये मूल्य संवैधानिक व्यवस्था के तहत मुहैया कराए जाते हैं । इस संबंध में धारा 66 क पूरी तरह से अस्पष्ट है । एक लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते हमें असंतोष के अधिकार तथा विचारों की अभिव्यक्ति भले ही अलोकप्रिय हो , को भी जगह देने की आवश्यकता है । ' न्यायाधीश द्वय के अनुसार , हम सरकार के इस आश्वासन पर नहीं जा सकते कि प्रावधान का दुरुपयोग नहीं होगा , भले ही सरकार का मंतव्य उचित हो , लेकिन सरकारें आती रहेंगी और जाती रहेंगी , पर इसके लिए किसी अवैध कानून को जारी नहीं रखा जा सकता और सरकार इसे कैसे देखेगी , कहा नहीं जा सकता ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
यदि किसी व्यक्ति के विचार सामाजिक मान्यताओं एवं विश्वासों के विरूद्ध हैं । और इससे सामाजिक स्वास्थ्य पर भी अत्यंत प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है , तो निश्चित रूप से ऐसे विचारों की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाना चाहिए । परंतु , यहां यह उठता है कि आखिर बुद्ध , महावीर ईसा मसीह , पैगम्बर मुहम्मद आदि के विचार भी तो सामाजिक मान्यताओं के प्रतिकूल थे , फिर प्रतिकूल विचारों के प्रति कैसा दृष्टिकोण होना चाहिए ?
......... जाहिर है , जो आलोचना सामाजिक स्वास्थ्य के लिए लाभकर हो उसकी अभिव्यक्ति में कोई बुराई नहीं हो , पर जो आलोचना केवल सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने के लिए पैदा की जाती है , उस पर प्रतिबंध तो लगना ही चाहिए । सामान्यतः , विश्वस्तर पर उदारवादियों एवं प्रगतिशील विचारकों का मुख्य विरोध कलात्मक अभिव्यक्तियों की स्वतंत्रता पर प्रहार के खिलाफ है । चाहे वह साहित्य पर प्रतिबंध के रूप में हो या फिल्म पर सेंसर के रूप में या किसी अन्य प्रकार की कलात्मक अभिव्यक्ति में । इसमें तो शायद कोई दो राय नहीं कि वीभत्स अश्लीलता एवं क्रूर हिंसा की अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगना ही चाहिए ।
परंतु शेष अन्य विचारों या धारणाओं के स्तर पर कोई प्रतिबंध उचित नहीं है कलाकार को सर्जना की और दर्शक - पाठक को उनमें अपनी पसंद के चयन की छूट होनी ही चाहिए । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के इस पूरे विवाद में पूर्ण स्वतंत्रता के समर्थक ' विस्तृत ) मानसिकता वाले समझे जाते हैं और इसके विरोधी पिछड़े , रूढ़िवादी और संकीर्ण मानसिकतावादी । ' निश्चित रूप से समाज में आज दोनों ही श्रेणियों के लोग रूढ़िवादी नजर आते हैं । पूर्ण स्वतंत्रता के लिए हाय - तौबा मचाने वाले अभिव्यक्ति को बस एकपक्षीय मानने की भूल करते हैं और विरोधी अपनी भावनाओं को इतना महत्व दे देते हैं कि उनके लिए वह गले की हड्डी बन जाती है । आज सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई भी व्यक्ति समझौतावादी रुख अपनाता ही नहीं है या तो कोई विचार पूरी तरह गलत सिद्ध किया जाता है या पूरी तरह सही । संवाद के दोनों पक्ष बिल्कुल दो समानांतर धाराओं में चलते हैं , सम्मिलन की कोई संभावना ही नहीं होती । या तो विरोध में मौत के फतवे जारी हो जाते हैं या समर्थन में लम्बी - चौड़ी बहस । मनुष्य आज सर्वत्र अपनी सहिष्णुता खोता जा रहा है । समाज का अस्तित्व तथा समाज की व्यवस्था तभी संभव है जब उसकी न्यूनतम इकाई अर्थात् मनुष्य अपने अधिकारों का निर्वहन सकारात्मक उत्थान के लिए करे न कि अपने विरोधियों के पतन के लिए । कहा जाता है कि मुख से निकले शब्द कभी लौट कर नहीं आते । इस बात से स्पष्ट होता है कि हमेशा से ही व्यक्ति को यह समझाने का प्रयत्न किया जाता रहा है कि आप जब भी कुछ कहें , वह सकारात्मक सृजन के लिए हो अन्यथा कोई विचार यदि विध्वंसकारी हो तो उसको रोक देना परिवार या समाज का कार्य है और यदि ऐसा कर पाना असंभव हो तो सरकारी कानून ही ऐसी अभिव्यक्तियों को रोकने का कार्य करें । तभी समाज का वैमनस्य कम हो सकता है अन्यथा हिंसा ही हिंसा को जन्म देगी , द्वेष ही द्वेष को तथा सकारात्मक विचार ही सकारात्मक विचारों को आगे बढ़ाएंगे ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति उदार दृष्टिकोण कभी - कभी एक अच्छी - खासी भोली - भाली जनसंख्या को फासीवादी बना देता है , साम्प्रदायिक बना देता है , गुमराह कर देता है । निश्चित रूप से ऐसी प्रवृत्ति पर अंकुश लगाना ही चाहिए । अपने विचारों एवं धारणाओं के प्रति एक तर्कपूर्ण दृष्टिकोण तो रखना ही चाहिए , जैसे हम अपने भाई - दोस्त से बहुत प्यार करें , यह अच्छी बात है ; परंतु जब उनका किसी दूसरे से झगड़ा हो जाए , तो दूसरे के पक्ष को भी सुनने से प्यार कम नहीं हो जाता । यदि ऐसा ही दृष्टिकोण हम अपने विचारों के प्रति भी रखें , तो कोई विवाद ही नहीं होगा ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
वस्तुतः धार्मिक रूढ़िवाद एवं बौद्धिक रूढ़िवाद दोनों ही विचारों की स्व अभिव्यक्ति में बाधक हैं । व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति के प्रति खुद सतर्कता बरतनी चाहिए । जैसे , मनुष्य अपने चलने के अधिकार का प्रयोग कर समुद्र पर चलने या कुएं में गिरने की कोशिश नहीं करता , उसी प्रकार उसे अपनी अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग अपने को अनैतिक या धूर्त बनाने के लिए भी नहीं करना चाहिए । यदि इस तरह की प्रवृत्ति मनुष्य अपने अंदर विकसित कर ले , तो संसार की विभिन्न सरकारें अपना ज्यादा समय मानव संसाधन के विकास में लगा सकेंगी ।
कितना आवश्यक है , अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य ?
अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का पूर्णतः उपस्थित होना या किसी प्रकार से सीमित किया जाना किसी व्यक्ति तथा उसके विचारों पर ही निर्भर करता है । जो मानदण्ड आज की तारीख में उचित एवं प्रासंगिक हैं , वे कल भी उचित एवं प्रासंगिक हों यह आवश्यक नहीं है । विचार बदलते हैं , दृष्टिकोण बदलते हैं , सामाजिक मानदण्ड बदलते हैं और यह काम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के द्वारा भी हो सकता है इन्हें सामान्य ढंग से लेना चाहिए और सही सोच संभवतः यही है कि परिवर्तन हमेशा बेहतरी लाता है ।
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