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बेरंग शामें लौटने के गीत गाती हैं....

लगा जैसे सारे गुजरे दिनों ने अपनी गर्द झाङ दी हो। पहली बार ऐसा हुआ जब शाम ना उदास थी ना रंगीन। यह एक अजीब सी शाम थी। पत्तों से हरियाई टहनियों के बीच से डूबता सूरज डरा रहा था। सवालों ने जेहन में ऐसा शोर मचाया था कि आसपास का कोलाहल जैसे म्यूट हो गया हो। क्या सारी बातें ऐसे ही बनती हैं। हालांकि मैंने बातें बनते तो बहुत देखी लेकिन इस तरह से बातें बनते देखकर सन्न रह गया। जिनके पास बनती बातों का सच खंगालने की जिम्मेदारी हो उनके हिस्से बच गये झूठ बुनने के करघे। उनके द्वारा बुने गये सच बिना आग का धूंआ होते है।

पता नहीं क्यों पर इस डूबते सूरज को देखकर मैं सुबहों में लौट गया। उन सुबहों में जहां एक संगीतकार संगीत बुनता है। हर रोज उस चौकी के आगे से गुजरने वाले व्यक्ति के लिए उसका अपना अलग अंदाज। लोगों की खुशी उसका पेट भरती है। भरा पेट उसे खुश करता है। खुश होता है तो वह अच्छे शब्द बुनता है। वह गहराई वाले गीत नहीं गाता। उसके गीत भी लप्रेक की छोटी-छोटी कहानियों की तरह होते हैं। इस अजीब सी शाम में वह इसलिए याद आया कि आज मैं मुस्कराना चाह रहा था। उसे सुनकर उदासियों में मुस्करा देता था। 

सामने पांच तोते दाना चुन रहे थे। आहट सुनकर उङ गये। उधर दो आदमी खेल बुन रहे थे जिसकी गांठों में से निकल रही थी उदासियां उनके लिए जिनके बहुत सारे सच उस खेल की बाजीयों में बिखर रहे थे। ज्यों ज्यों गर्द झङती नक़ाब उतरते जाते। बरसों के सच के यूं बिखरने से उदासियां आती है। हमेशा वाली उदासियां नहीं। अजीब से उदासियां। वही उदासी जो इस पत्थर की कुर्सी पर मेरे साथ बैठे हर चेहरे पर दिख रही है। इस बार सबकी अपनी-अपनी उदासियां नहीं है एक ही उदासी है लेकिन डर अलग-अलग।

मेरा डर यह है कि मै ना तो इस खेल का हिस्सा बन सकता हूं ना ही दर्शक। यह खेल सारे सच झुठला देता है। यह खेल मेरे होने को ही झुठला देता है। यह खेल मुझे भावनाओं में बहा ले जाता है। असल में यह खेल है ही नहीं यह तो बिना आग का धूंआ है जिसे देखा किसी ने नहीं जिसने सुना वो अपनी तरफ से पानी और घी डालता जाता है। सारे बाज़ार में भंयकर आग की चर्चा है क्यों कि लोग पानी और घी डाल रहे है। मैंने जब आँखें खोलकर धूंए को देखना चाहा तो शाम ने अपने सारे रंग झाङ दिये। सूरज पर बिना आग के धूंए की कालिख लग गई।

बेरंग शामें लौटने के गीत गाती हैं। मैंने उन गीतों को अनसुना करने के लिए तोतों और हरे पेङों के ठहरने के गीतों पर खुद को कम्बल की तरह लपेट लिया। लिपटा तो मैं था कम्बल की तरह लेकिन मेरे लिए ये ठहरने का संगीत कम्बल की तरह था जो सर्द शाम में गर्माहट दे रहा था।

लौटने के गीत तो अनसुने हो गये लेकिन गुजरे दिनों की गर्द झङने के बाद सर्वाइवल मुश्किल होता है। शैतान प्रेमी को कैक्टस की छाँव प्यारी लगती है। वह रेगिस्तान के आकों में अपनी भोली प्रेमिका से मुहब्बत करता है उनका सच उस आक के पत्ते और कैक्टस के कांटे है। वो कांटे लहुलुहान करते है पत्तों से गिरता दूध अंधा कर देता है। लेकिन शैतान और उसकी प्रेमिका उनका सच जानते हैं इसलिए डर नहीं। डर तो झूठे रंगो और झूठी गर्द का है जो झङकर प्यारी शाम के रंग छीन लेती है।

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