जो होता था वो जरूरी नहीं था कि हमेशा अच्छे के लिए होता था। कभी-कभी अनजाने में बहुत कुछ बुरा घट जाता है। बिना भरपाई और बिना जवाब का बुरा। इन दिनों जो थोड़ी सी नींद बचती थी उसके सपने ऐसे थे कि मैं चारों तरफ रेत के टीलों के ऊपर ऊंटगाड़ियों के पीछे बंधे कुत्तों सा घिसट रहा था। वह घिसटता कुत्ता मेरे दिमाग पर चढ़ गया था। मैं हर बार की तरह सपने के बीच से चौंककर जगता तो लगता मेरे पास कुछ बज रहा है। कोई राग। कौनसा राग, किसका राग, किसकी अावाज़, किसके साज कुछ भी नहीं पता। मैं बस अब सोना नहीं चाहता। सोने और जीने में बस इतना ही फर्क था। मैं चाहता था कि मैं सारी रातें भूखे रहकर बिन सोये गुजार दूं पर जीने के सपने देखने के लिए यह बिल्कुल भी संभव नहीं था। आज कि रात जाने कैसे सपने आयेंगे। टूटे हुए सपने? नहीं। पता नहीं। मैं कलम से नहीं लिख सकता था। यह अच्छा था। पर मैं अब भी एक अच्छी कलम और डायरी का वादा याद रखे था। और लिखना भी। मुझे पता है कि मेरी जुबान किसी काम की नहीं थी लबों के आज़ाद होने के बावजूद। मैं उसे काटकर फेंक देना चाहता था। पर यह सब झूठ था। सब। पर सच यह है कि ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’। 🌿

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