ठंडी होती सुबहों की गर्म दोपहर। झूलों में खेल रहे बच्चों के अलावा सब शांत है। गर्म दोपहरें कितनी शांत हो जाती हैं। हवा में हिल रहे अनाज की बोरियों पर रखे ओढ़नों पर खिड़कियों से आती धूप नाच रही है। कमरे ने भी शांति ओढ़ रखी है। पँखे से जुगलबंदी करती भूपिंदर सिंह की आवाज़ गूंज रही है ‘लाई हयात आए क़ज़ा ले चली चले / अपनी ख़ुशी न आए न अपनी ख़ुशी चले।’ लेपटॉप की बुझी स्क्रीन में मैं अपना चेहरा देख रहा हूँ। सच में सब इतना ही शांत है क्या जितना दिख रहा है।

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