मैं अपने प्रति पूरी तरह से सजग था तमाम लापरवाहियों के बाद भी। सामने बैठे लोगों को, सामने पसरी चीज़ों को, प्रकृति को, अलग-अलग जगहों के बीच के फर्क को बहुत अच्छे से महसूस कर सकता था। मसलन माथा ऊपर करके देखी जाने वाली चीज़ों को मैं सिर झुकाये देखते हुए वह सब सोच रहा था जो मैंने सपनों में देखा था। यह सोचना और देखना दोनों ही मेरी दुनिया के लोगों के लिए किसी और दुनिया का ही था। जबकि मैं चिल्लाने के बजाय यह सब मौन होकर देख रहा था। ‘यार, अस्पताल की खिड़की से बारिश का होना कितना रोमांच से भरा दिख रहा है।’
‘उफ्फ, कितनी मस्त ठंडी हवा चल रही है यहाँ इस पहाड़ी पर।’
‘यार, कितनी गर्मी हो रही है इस रेगिस्तानी पठियाल में।’ मेरे लिए अस्पताल की खिड़की को जीना और पहाड़ी को जीना असंभव कार्य थे। पठियाळ में मैं उम्र भर रह सकता था। सोचने और देखने जितना ही अलग जीने को महसूस करना था। और मैं इतने लोगों के बीच अकेले बैठा हुआ जीते रहने को महसूस करने का अपराध कर रहा हूँ। शाम हो गई है उसने सामान समेट लिया और जा रहा है। आसपास का सारा शोर मिट जाता है एक वक्त के बाद। मैं चुपचाप सुनता रहता हूँ उस अबोले को जिसका होना दीवार की तरह बीच में पसरा है। वह अबोला जिसके होने के चिन्ह सामने आकर जलने-बुझने लगते हैं। सबकुछ समेट लेने के बाद झाड़ू फेर कर साफ कर दिया गया बरामदा कभी साफ नहीं होता है। मैं सफाई के बाद उभर आई सीमेंट की रेखाओं को चिन्हों की तरह महसूस रहा हूँ। वो चिह्न जिनका होना जरूरी था। सीमेंट की रेखाओं के पत्थरों को जोड़ते हुए चिन्ह।
और मेरे पास तो कोई झाड़ू भी नहीं था। अगर किसी से उधार लिया हुआ झाड़ू फेर भी दिया गया तो भरभराकर गिर जायेगा बरामदा। गार-मिट्टी की बनी पठियाल के पास वाला मेरा बरामदा। जिसका होना ही एक चिन्ह था। उसपर कोई चिन्ह कभी नहीं उभरने थे।

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