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वो औरतें झूठ बोलती है...



एक असफल शादी में
फंसी हुई औरतें
अक्सर 
झूठ बोल जाती है।

बड़ी सफाई से
रिश्तें को ना तोड़ने के लिए बनाती है,
कभी बच्चों का बहाना
कभी बाबूजी के कमजोर दिल का
कभी मां की खराब तबियत का

कभी पति के भविष्य में सुधर जानें कि उम्मीद का।
बहानों के इस आवरण के पीछे छुपकर
बड़ी सफाई से
रिश्ते के सूखे पौधे पर
उड़ेल आती है
एक लोटा पानी
तब भी जब वो जानती है
कि जड़ से सुख चुके पौधे
फिर हरे नहीं हुआ करते।
घर से मकान बन चुकी चार दिवारी को
अपने कमजोर कंधों पर
पूरे जतन से टिकाकर रखती है,

अपनी अधूरी इच्छाओं को
मायके से आये बक्से में छुपाकर
किसी अंधेरे कोनें में रख देती है।
और उस पर डाल देती है
झूठी मुस्कराहट का मेजपोश।

बड़े करीने से संवारती है वो
बच्चों के सपने
उनकी फरमाइशें
उनकी पसंद के खाने को
अपनी फीकी पड़ चुकी हथेलियों से
लपेटती है चमकीली सिल्वर फॉइल में
और बस्ते में भरकर 
भेज देती है उन्हें भविष्य संवारने
और खुद के वर्त्तमान को
घोल देती है
अविरल बहते आंसुओं में।

मां का फोन आने पर वो
दे देती है
सफलतम अदाकारा को भी मात।

हंसते हंसते माँ से पूछ लेती है।
मायके से जुड़ी सारी यादों की खेरियत
और माँ के हाल पूछने पर
भर्राए गले से बोल देती है
आवाज नहीं सुनाई देने का एक और झूठ
फिर फोन रख देते ही
रो लेती है
फूट फूट कर
बंद दरवाजे के पीछे।

उन्हें हर रोज कथित शुभचिंतकों से मिलती है सलाहें
छोड़ देने की
तोड़ देने की
किन्तु वो न छोड़ना सीख पाती है,
न तोड़ना
सीख जाती है तो बस झूठ बोलना
स्वयं से ही।।

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