मेरे पूर्वजों ने ईद भी मनाई और दीवाली भी,
मंदिरों के रास्तों में रफ्तार धीमी की हमनें,
मस्जिदों की सीढ़ियों पर रुक कर अजान सुनी,
ईसाइयों की स्कूलों में तालीम पाई,
सिक्खों के घरों में जिंदगी बिताई,
मेरे दोस्तों की पहरिस्त में रंग बोहत है,
मेरी दुनियां के दायरों में तरंग बोहत है।
मेरे खाने में मेरा मजहब साफ नहीं दिखता,
मेरे घर के दरवाजे पर धर्म नहीं रहता।
मेरे पहनावे में तहजीब है, धर्म की छाप नहीं,
मेरी जुबां पर मेरी परवरिश है, मजहब की ताप नहीं।
मेरे त्योहारों में कोई त्योहार इज्जत से खाली नहीं,
क्रिसमस भी मेरी, लोहड़ी भी मेरी, सिर्फ ईद दीवाली नहीं
धर्म से लोग एकजुट नहीं किये जाते,
काश कि वो घरों से निकले और जानें,
अपनी सोच को बड़ी करके, दुनिया की सरहदें लांघे
अलामा इकबाल के पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे।
हम निवाला और हम प्याला ही हम सफर हुआ करते हैं,
इश्क उससे होता है, जिससे घर की दीवारें मिलती हो।
दिल उनसे जा लगता है, जो एक पेड़ की छांव में बैठे हो।
अहले किताब ही जिंदगी की गांठ नहीं बांधते
डर सिर्फ आख़िरत का ही नहीं, रहती जिंदगी का भी है
क्या मालूम कि तुमसे मजहब तो मिले मगर सोच नहीं
हमें दफनाया तो एक ही सलीके से जाये,
पर जीवन की हर बात एक दूसरे पर बोझ रही।
तो क्या कि मेरे खुदा का नक्श नहीं, और तेरे रब की शक्ल है।
तो क्या की मेरा अंत जमीन में है, और तेरा अंत हवाओं में।
तो क्या की तेरे पैदा होने पर कुछ, मेरे पैदा होने पर कुछ और हुआ था जश्न।
तो क्या कि तेरी किताब ऐसी और मेरी किताब वैसी
तो क्या कि तेरे वास्ते नेताओँ ने कुछ और वादे किये,
तो क्या कि मेरे लिये नेताओं ने कुछ और झूठ कहे।
तो क्या कि तेरे नाम के आगे कुछ, मेरे नाम के साथ कुछ और जुड़ा है।
तो क्या कि हमारे इबादत खानों में फूल अलग है,
तो क्या कि तू संस्कृत में, मैं अरबी में दुआ मांगू हूँ
तो क्या कि उन्हें हमारी दोस्ती से है दर इतना,
कि टीवी पर चलाते हैं मुहिम नफरत की।
तो क्या कि उनकी आंखों में है ख़ौफ़ हमारे लिये
की हम एक दिन उठेंगे, उन्हें कर देंगे बेनकाब
जो दिन रात लगे थे इतिहास बदलने में,
जो इंतेहा पसंद है वो सुनले, ये आवाज बगावत की है।
हम एक थाली में खाते है, और हम निवालों में व्याहते हैं।
हम सायो में जश्न मनाते हैं, और पड़ोसियों से हर वादा निभाते हैं।
हमारा मरना चाहे अलग होगा,पर ज़िन्दगी एक और जश्न एक मनाते हैं।
तेरा भगवान ऐसा है, मेरा अल्लाह वैसा है।
हर दिन दो- दो रब का उर्स मनाते हैं।
किताबों में फर्क क्या है, देख चुके बोहत
अब एक जैसा क्या है, उसकी रोशनी फैलाते हैं।
कयामत का इंतजार क्या करना हमवतनों,
आने वाले नस्ल की तरफ अपना फर्ज आज ही से निभाते हैं।
✍️ अतिका अहमद फारूकी

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