नित्य पढ़ें
दूसरे के छिद्र देखने से पहले अपने छिद्रों को टटोलो । किसी और की बुराई करने से पहले यह देख लो कि हममें तो कोई बुराई नहीं है । यदि हो तो पहले उसे दूर करो । दूसरों की निंदा करने में जितना समय देते हो उतना समय अपने आत्मोत्कर्ष में लगाओ । तब स्वयं इससे सहमत होगे कि परनिंदा से बढ़ने वाले द्वेष को त्याग कर परमानंद प्राप्ति की ओर बढ़ रहे हो ।
संसार को जीतने की इच्छा करने वाले मनुष्यों ! पहले अपने को जीतने की चेष्टा करो । यदि तुम ऐसा कर सके तो एक दिन तुम्हारा विश्व विजेता बनने का स्वप्न पूरा होकर रहेगा । तुम अपने जितेंद्रिय रुप से संसार के सब प्राणियों को अपने संकेत पर चला सकोगे । संसार का कोई भी जीव तुम्हारा विरोधी नहीं रहेगा ।
दिनांक : 1
आध्यात्मिक चिंतन् अनिवार्य
जो लोग आध्यात्मिक चिंतन से विमुख होकर केवल लोकोपकारी कार्य में लगे रहते हैं , वे अपनी ही सफलता पर अथवा सद्गुणों पर मोहित हो जाते हैं । वे अपने आपको लोक सेवक के रुप में देखने लगते हैं । ऐसी अवस्था में वे आशा करते हैं कि सब लोग उनके कार्यों की प्रशंसा करें , उनका कहा मानें । उनका बढ़ा हुआ अभिमान उन्हें अनेक लोगों का शत्रु बना देता है । इससे उनकी लोक सेवा उन्हें वास्तविक लोक सेवक न बनाकर लोक विनाश का रूप धारण कर लेती है ।
आध्यात्मिक चिंतन के बिना मनुष्य में विनीत भाव नहीं आता और न उसमें अपने आपको सुधारने की क्षमता रह जाती है । वह भूलों पर भूल करता चला जाता है । और इस प्रकार अपने जीवन को विकल बना देता है ।
दिनांक : 2
मानवमात्र को प्रेम करो
हम जिस भारतीय संस्कृति , भारतीय विचारधारा का प्रचार करना चाहते हैं , उससे आपके समस्त कष्टों का निवारण हो सकता है । राजनीतिक शक्ति द्वारा आपके अधिकारों की रक्षा हो सकती है । पर जिस स्थान से हमारे सुख - दुख की उत्पत्ति होती है उसका नियंत्रण राजनीतिक शक्ति नहीं कर सकती । यह कार्य आध्यात्मिक उन्नति से ही संम्पन्न हो सकता है ।
मनुष्य को मनुष्य बनाने की वास्तविक शक्ति भारतीय संस्कृति में ही है । यह संस्कृति हमें सिखाती हैं कि से प्रेम करने को पैदा हुआ है , लड़ने - मरने मनुष्य - मनुष्य को नहीं । अगर हमारे सभी कार्यक्रम ठीक ढंग से चलते रहे तो भारतीय संस्कृति का सूर्योदय अवश्य होगा ।
दिनांक : 3
अंतरात्मा का सहारा पकड़ो
यदि तुम शांति , सामर्थ्य और शक्ति चाहते हो तो अपनी अंतरात्मा का सहारा पकड़ो । तुम सारे संसार को धोखा दे सकते हो किंतु अपनी आत्मा को कौन धोखा दे सका है । यदि प्रत्येक कार्य में आप अंतरात्मा की सम्मति प्राप्त कर लिया करेंगे तो विवेक पथ नष्ट न होगा । दुनियाँ भर का विरोध करने पर भी यदि आप अपनी अंतरात्मा का पालन कर सके तो कोई आपको सफलता प्राप्त करने से नहीं रोक सकता ।
जब कोई मनुष्य अपने आपको अद्वितीय व्यक्ति समझने लगता है और अपने आपको चरित्र में सबसे श्रेष्ठ मानने लगता है , तब उसका आध्यात्मिक पतन होता है ।
दिनांक : 4
जीवन को यज्ञमय बनाओ
मन में सबके लिए सद्भावनाऐं रखना , संयमपूर्ण सच्चरित्रता के साथ समय व्यतीत करना , दूसरों की भलाई बन सके उसके लिए प्रयत्नशील रहना , वाणी को केवल सत्प्रयोजनों के लिए ही बोलना , न्यायपूर्ण कमाई पर ही गुजारा करना , भगवान का स्मरण करते रहना , अपने प्रतिकूल कर्तव्य पथ पर आरुढ़ रहना , अनुकूल परिस्थितियों में विचलित न होना - यही नियम हैं जिनका पालन करने से जीवन यज्ञमय बन जाता है । मनुष्य जीवन को सफल बना लेना ही सच्ची दूरदर्शिता और बुद्धिमत्ता हैं ।
जब तक हम में आत जब तक हम में अहंकार की भावना रहेगी तब तक त्याग की भावना का उदय होना कठिन हैं ।
दिनांक : 5
हँसते रहो , मुस्कुराते रहो
उठो ! जागो ! रुको मत !!! जब तक की लक्ष्य न प्राप्त न हो जाए । कोई दूसरा हमारे प्रति बुराई करें या निंदा करे , उद्वेगजनक बात कहे तो उसको सहन करने और उसे उत्तर न देने से बैर आगे नहीं बढ़ता । अपने ही मन में कह लेना चाहिए कि इसका सबसे अच्छा उत्तर है मौन । जो अपने कर्तव्य कार्य में जुटा रहता है और दूसरों के अवगुणों की खोज में नहीं रहता उसे आंतरिक प्रसन्नता रहती है ।
जीवन में उतार - चढ़ाव आते ही रहते हैं ।
हँसते रहो , मुस्कुराते रहो ।
ऐसा मुख किस काम का जो हँसे नहीं , मुस्कराए नहीं ।
जो व्यक्ति अपनी मानसिक शक्ति स्थिर रखना चाहते हैं । उनको दूसरों की आलोचनाओं से चिढ़ना नहीं चाहिए ।
दिनांक : 6
आत्म समर्पण करो
तुम्हें यह सीखना होगा कि इस संसार में कुछ कठिनाइयां हैं जो तुम्हें सहन करनी हैं । वे पूर्व कर्मों के फलस्वरुप तुम्हें अजेय प्रतीत होती है । जहाँ कहीं भी कार्य में घबराहट थकावट और निराशाऐं हैं , वहां अत्यंत प्रबल शक्ति भी है । अपना कार्य कर चुकने पर एक ओर खड़े होओ । कर्म के फल को समय की धारा में प्रवाहित हो जाने दो ।
अपनी शक्ति भर कार्य करो और तब अपना आत्मसमर्पण करो । किन्हीं भी घटनाओं में हतोत्साहित न होओ । तुम्हारा अपने ही कर्मों पर अधिकार हो सकता है । दूसरों के कर्मों पर नहीं । आलोचना न करो , आशा न करों , भय न करो , सब अच्छा ही होगा । अनुभव आता है और जाता है । खिन्न न होओ । तुम दृढ़ भित्ति पर खड़े हुए हो ।
दिनांक : 7
मार्गदर्शन के लिए अपनी ही ओर देखो
साक्षात्कार संम्पन्न पुरुष न तो दूसरों को दोष लगाता है और न अपने को अधिक शक्तिमान वस्तुओं आच्छादित होने के कारण वह स्थितियों की अवहेलना करता है ।
अहंकार से उतना ही सावधान रहो जितना क पागल कुत्ते से । जैसे तुम विष या विषधर सर्प को नहीं छूते , उसी प्रकार सिद्धीयों से अलग रहो और उन लोगों से भी जो इनका प्रतिवाद करते हैं । अपने मन और हृदय की संपूर्ण क्रियाओं को ईश्वर की ओर संचारित करो ।
दूसरों का विश्वास तुम्हें अधिकाधिक असहाय और दुःखी बनाएगा । मार्गदर्शन के लिए अपनी ही ओर देखो , दूसरों की ओर नहीं । तुम्हारी सत्यता तुम्हें दृढ़ बनाएगी । तुम्हारी दृढ़ता तुम्हें लक्ष्य तक ले जाएगी ।
दिनांक : 8
अपने आपकी समालोचना करो
जो कुछ हो , होने दो । तुम्हारे बारे में जो कहा जाए उसे कहने दो । तुम्हें ये सब बातें मृगतृष्णा के जल के समान असार लगनी चाहिए । यदि तुमने संसार का सच्चा त्याग किया है तो इन बातों से तुम्हें कैसे कष्ट पहुँच सकता है । अपने आपकी समालोचना में कुछ भी कसर मत रखना तभी वास्तविक उन्नति होगी ।
प्रत्येक क्षण और अवसर का लाभ उठाओ । मार्ग लंबा है । समय वेग से निकला जा रहा है । अपने संपूर्ण आत्मबल के साथ कार्य में लग जाओ , लक्ष्य तक पहुंचोगे ।
किसी बात के लिए भी अपने को क्षुब्ध न करो । मनुष्य में नहीं , ईश्वर में विश्वास करो । वह तुम्हें रास्ता दिखाएगा और सन्मार्ग सुझाएगा ।
दिनांक : 9
नम्रता , सरलता , साधुता , सहिष्णुता
सहिष्णुता का अभ्यास करो । अपने उत्तरादायित्व को समझो । किसी के दोषों को देखने और उन पर टीका - टिप्पणी करने के पहले अपने बड़े - बड़े दोषों का अन्वेषण करो । यदि अपनी वाणी का नियंत्रण नहीं कर सकते तो उसे दूसरों के प्रतिकूल नहीं बल्कि अपने प्रतिकूल उपदेश करने दो ।
सबसे पहले अपने घर को नियमित बनाओ क्योंकि बिना आचरण के आत्मानुभव नहीं हो सकता । नम्रता , सरलता , साधुता , सहिष्णुता ये सब आत्मानुभव के प्रधान अंग है ।
दूसरे तुम्हारें साथ क्या करते हैं इसकी चिंता करो । आत्मोन्नति में तत्पर रहो । यदि यह तथ्य समझ लिया तो एक बड़े रहस्य को पा लिया।
दिनांक : 10
अंतःकरण के धन को ढूंढो
तुम्हें अपने मन को सदा कार्य में लगाए रखना होगा । इसे बेकार न रहने दो । जीवन को गंभीरता के साथ बिताओ । तुम्हारे सामने आत्मोन्नति का महान कार्य है और पास में समय थोड़ा है । यदि अपने को असावधानी के साथ भटकने दोगे तो तुम्हें शोक करना होगा और इससे भी बुरी स्थिति को प्राप्त होगे ।
धैर्य और आशा रखो तो शीघ्र ही जीवन की समस्त स्थिति का सामना करने की योग्यता तुममें आ जाएगी । अपने बल पर खड़े होओ । यदि आवश्यक हो तो समस्त संसार को चुनौती दे दो । परिणाम में तुम्हारी हानि नहीं हो सकती । तुम केवल सबसे महान से संतुष्ट रहो । दूसरे भौतिक धन की खोज करते हैं और तुम अंतःकरण के धन को ढूंढ़ो ।
दिनांक : 11
अकेला चलो
महान व्यक्ति सदैव अकेले चले हैं और इस अकेलेपन के कारण ही दूर तक चले हैं । अकेले व्यक्तियों ने अपने सहारे ही संसार के महानतम कार्य सम्पन्न किए हैं । उन्हें एकमात्र अपनी ही प्रेरणा प्राप्त हुई है । वे अपने ही आंतरिक सुख से सदैव प्रफुल्लित रहे हैं । दूसरे से दुख मिटाने की उन्होंने कभी आशा नहीं रखी । निज वृत्तियों में ही उन्होंने सहारा नहीं देखा ।
अकेलापन जीवन का परम सत्य है । किंतु अकेलेपन से घबराया , जी तोड़ना , कर्तव्यपथ से हतोत्साहित या निराश होना सबसे बड़ा पाप है । अकेलापन आपके निजी आंतरिक प्रदेश में छिपी हुई महान शक्तियों को विकसित करने का साधन है । अपने ऊपर आश्रित रहने से आप अपनी उच्चतम शक्तियों को खोज निकालते हैं ।
दिनांक : 12
दूसरों पर निर्भर न रहो
जिस दिन तुम्हें अपने हाथ - पैर और दिल पर भरोसा हो जावेगा , उसी दिन तुम्हारी अंतरात्मा कहेगी बाधाओं को कुचल कर तू अकेला चल अकेला ।
जिस व्यक्तियों पर तुमने आशा के विशाल महल बना रखे हैं वे कल्पना के व्योम में विहार करने के समान हैं । अस्थिर सारहीन खोखले हैं । अपनी आशा को दूसरों में संश्लिष्ट कर देना स्वयं अपनी मौलिकता का ह्रास कर अपने साहस को पंगु कर देना है । जो व्यक्ति दूसरों की सहायता पर जीवन यात्रा करता है वह शीघ्र अकेला रह जाता है ।
दूसरों को अपने जीवन का संचालक बना देना ऐसा ही है जैसा अपनी नौका को ऐसे प्रवाह में डाल देना जिसके अंत का आपको कोई ज्ञान नहीं ।
दिनांक : 13
प्रेम एक महान शक्ति
प्रेम ही एक ऐसी महान शक्ति है जो प्रत्येक दिशा में जीवन को आगे बढ़ाने में सहायक होती है । बिना प्रेम के किसी के विचारों में परिवर्तन नहीं लाया जा सकता । विचार तर्क - वितर्क की सृष्टि नहीं है । विचारणा तथा विश्वास बहुकाल के सत्संग से बनते हैं । अधिक समय की संगति का ही परिणाम प्रेम है । इसलिए विचार धारणा अथवा विश्वास प्रेम का विषय है ।
यदि हम दूसरों पर विजय प्राप्त करके उनको अपनी विचारधारा में बहाना चाहते हैं , उनके दृष्टिकोण को बदलकर अपनी बात मनवाना चाहते हैं , तो प्रेम का सहारा लेना चाहिए । तर्क और बुद्धि हमें आगे नहीं बढ़ा सकते है । विश्वास रखिए कि आपकी प्रेम और सहानुभूतिपूर्ण सभी बातों को सुनने के लिए दुनियाँ विवश होगी।
दिनांक : 14
असफलताओं का कारण
हम दूसरों को बरवस अपनी तरह विश्वास , मत , स्वभाव एवं नियमों के अनुसार कार्य करने और जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य करते हैं । दूसरों को बरवस सुधार डालने , अपने विचार या दृष्टिकोण को जबरदस्ती थोपने से न सुधार होता है न आपका ही मन प्रसन्न होता है ।
यदि हम अमुक व्यक्ति को दबाएं रखेंगे तो अवश्य परोक्ष रूप से हमारी उन्नति हो जायेगी । अमुक व्यक्ति हमारी उन्नति में बाधक है । अमुक हमारी चुगली करता है , दोष निकालता है , मानहानि कराता है । अतः हमें अपनी उन्नति न देखकर पहले अपने प्रतिपक्षी को रोके रखना चाहिए - ऐसा सोचना और दूसरों को अपनी असफलताओं का कारण मानना , भ्रममूलक है ।
दिनांक : 15
दुःखद स्मृतियों को भूलो
जब मन में पुरानी दुखद स्मृतियां सजग हों तो उन्हें भुला देने में ही श्रेष्टता है । अप्रिय बातों को भुलाना आवश्यक है । भुलाना उतना ही जरुरी है जितना अच्छी बात का स्मरण करना । यदि तुम शरीर से , मन से और आचरण से स्वस्थ होना चाहते हो तो अस्वस्थता की सारी बातें भूल जाओ ।
माना कि किसी ' अपने ' ने ही तुम्हें चोट पहुंचाई है , तुम्हारा दिल दुखाया है , तो क्या तुम उसे लेकर मानसिक उधेड़बुन में लगे रहोगे । अरे भाई ! उन कष्टकारक अप्रिय प्रसंगों को भूला दो , उधर ध्यान न देकर अच्छे शुभ कर्मों से मन को केंद्रीभूत कर दो ।
चिंता से मुक्ति पाने का सर्वोत्तम उपाय दुखों को भूलना ही है ।
दिनांक : 16
सुख - दुखों के ऊपर स्वामित्व
तुम सुख , दुख की अधीनता छोड़ उनके ऊपर अपना स्वामित्व स्थापन करो और उसमें जो कुछ उत्तम मिले उसे लेकर अपने जीवन को नित्य नया रसयुक्त बनाओ । जीवन को उन्नत करना ही 10532 मनुष्य का कर्तव्य है इसलिए तुम भी उचित समझो सो मार्ग ग्रहण कर इस कर्तव्य को सिद्ध करो ।।
प्रतिकूलताओं से डरोगे नहीं और अनुकूलता ही को सर्वस्व मान कर बैठे रहोगे तो सब कुछ कर सकोगे । जो मिले उसी से शिक्षा ग्रहण कर जीवन को उच्च बनाओ । यह जीवन ज्यों - ज्यों उच्च बनेगा त्यों - त्यों आज जो तुम्हें प्रतिकूल प्रतीत होता है वह सब अनुकूल दिखने लगेगा और अनुकूलता आ जाने पर दुख मात्र की निवृत्ति हो जावेगी
दिनांक : 17
बोलिए कम , करिये अधिक
' हमारी कोई सुनता नहीं , कहते कहते थक गए पर सुनने वाले कोई सुनते नहीं अर्थात् उन पर कुछ असर ही नहीं होता'- मेरी राय में इसमें सुनने वाले से अधिक दोष कहने वाले का है । कहने वाले करना नहीं जानते । वे अपनी ओर देखें । आत्म निरीक्षण कार्य की शून्यता की साक्षी दे देगा । वचन की सफलता का सारा दारोमदार कर्मशीलता में है । आप चाहे बोलें नहीं , थोड़ा ही बोलें पर कार्य में जुट जाइये । आप थोड़े ही दिनों में देखेंगे कि लोग बिना कहे आपकी ओर खिंचे आ रहे हैं । अतः कहिए कम , करिए अधिक । क्योंकि बोलने का प्रभाव तो क्षणिक होगा और कार्य का प्रभाव स्थाई होता है ।
दिनांक : 18
पौरूष की पुकार
साहस ने हमें पुकारा है । समय ने , युग ने , कर्तव्य ने , उत्तरदायित्व ने , विवेक ने , पौरूष ने हमें पुकारा है । यह पुकार अनसुनी न की जा सकेगी । आत्म निर्माण के लिए , नव निर्माण के लिए हम कांटों से भरे रास्तों का स्वागत करेंगे और आगे बढ़ेंगे । लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं , इसकी चिंता कौन करे । अपनी आत्मा ही मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है । लोग अंधेरे में भटकते हैं , भटकते रहें । हम अपने विवेक के प्रकाश का अवलंबन कर स्वतः आगे बढ़ेंगे । कौन विरोध करता है , कौन समर्थन ? इसकी गणना कौन करे । अपनी अंतरात्मा , अपना साहस अपने साथ है और वहीं करेंगे , जो करना अपने जैसे सजग व्यक्तियों के लिए उचित और उपयुक्त है ।
दिनांक : 19
पुरुषार्थ की शक्ति
सुधारवादी तत्वों की स्थिति और भी उपहासास्पद है । धर्म , अध्यात्म , समाज एवं राजनीतिक क्षेत्रों में सुधार एवं उत्थान के नारे जोर - शोर से लगाए जाते है । पर उन क्षेत्रों में जो हो रहा है , जो लोग कर रहे हैं , उसमें कथनी और करनी के बीच जमीन आसमान जैसा अंतर देखा जा सकता है । ऐसी दशा में उज्जवल भविष्य की आशा धूमिल ही होती चली जा रही है ।
क्या हम सब ऐसे ही समय की प्रतिक्षा में , ऐसे ही हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें । अपने को असहाय , असमर्थ अनुभव करते रहें और स्थिति बदलने के लिए किसी दूसरे पर आशा लगाए बैठे रहें । मानवी पुरुषार्थ कहता है ऐसा नहीं होना चाहिए ।
दिनांक : 20
भटकना मत
लोभों के झोंके , मोहों के झोंके , नामवरी के झोंके , यश के झोंके , दबाव के झोंके ऐसे हैं कि आदमी को लंबी राह पर चलने के लिए मजबूर कर देते हैं और कहां से कहां घसीट ले जाते है । हमको भी घसीट ले गए होते । ये सामान्य आदमियों को घसीट ले जाते हैं । बहुत से व्यक्तियों में जो सिद्धान्तवाद की राह पर चले इन्हीं के कारण भटक कर कहां से कहां जा पहुँचे ।
आप भटकना मत । आपको जब कभी भटकन आए तो आप अपने उस दिन की उस समय की मनःस्थिति को याद कर लेना , जबकि आपके भीतर से श्रद्धा का एक अंकुर उगा था । उसी बात को याद रखना कि परिश्रम करने के प्रति जो हमारी उमंग और तरंग होनी चाहिए उसमें कमी तो नहीं आ रही ।
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