ज़िन्दगी को बनाने के लिए जिन राहों पर चलना मुनासिब समझा था, आज लगता है उन राहों पर इतना दूर निकल आया हूँ कि इस जगह से सब वीरान ही वीरान नजर आ रहा, जेठ मास की तरह गरम मरुस्थल सी बन के रह गई है यह ज़िन्दगी। खुशियों की बारिश तो बस पूछो मत, बादल आते हैं मगर बिना बरसे ही लौट जाते हैं।
सपनें मृग मरीचिका बनके रह गए हैं, एक कदम पास जाओ तो वो दस कदम आगे भाग जाते हैं।
हर बार जब टूट कर चूर हो चुका होता तो पूरा हौसला बटोर के फिर से खड़ा होता, और मृग मरीचिका से लगने वाले सपनो के पीछे दौड़ने लगता,हासिल भी किया उनको, उन तक पहुंचा भी मगर वो सपनें भी बालू मिट्टी की तरह हाथ मे से फिसल गए।
और इन सपनों के पीछे भागते भागते कब अपने पीछे छूट गए ये भी मालूम नही हुआ।
आज जब इस मोड़ पर खुद में ही खुद को टटोला तो पास में एक कलम और डायरी के सिवाय कुछ नही।
वही अपनी पुरानी दोस्त जिनके साथ सब कुछ कह दो, जो मन मे आये बोल दो,गुस्सा करके फेंक दो , मगर कोई गिला शिकवा नहीं।
और ये कलम बेचारा कितनी बार तो टूटा है इन हाथों से मगर फिर भी तन्हाई में साथ देने आ जाता है।
शायद कुछ कश्तियों को किनारा नसीब नहीं होता, उनके हिस्से में तूफानों से टकरा कर टूट जाना ही होता है।
कुछ बर्तन तेज आंच की तपन सहन नही कर पाते वो पकते नहीं है, इसलिए वो मिट्टी का बर्तन जो पक नी पाया किसी काम का नही रहता।
इन सपनों के पीछे भागते भागते कितने ही खूबसूरत रिश्तों का कत्ल किया है, ना जाने कितने रिश्तों का गला घोंटा है मैंने, मेरे इन हाथों में कितने ही निर्दोष रिश्तों के कत्ल का खून लगा है।
इस उम्मीद में कि जब सपनें सच हो जाएंगे तोअपनों को और रिश्तों को दोनों को बखूबी निभाउंगा।
मगर सपनो को पाने की जिद्द ने सब छीन लिया।
ना जाने कब खुद से मुखातिब हुआ था मालूम नहीं। भागदौड़ भरी जिंदगी में ठहरना चाहता हूं, कुछ पल खुद के साथ बिताना चाहता हूं, मगर ये ज़िन्दगी ठहरने कहाँ देती है। सुबह से लेकर शाम और शाम से कब सुबह हुई मालूम ही नही होता, उगते सूरज की लालिमा शहरों में नजर कहाँ आती है, मगर ढलते सूरज के अंधियारे का भी एहसास नहीं होता है।
फिर भी ना जाने क्यों उन अनजानी राहों पर चले जा रहा हूँ। मुसाफिर का सफर होता है मगर मेरी सिर्फ राहें। देखता हूं कहाँ तक ले जाती है ये अनजानी राहें।
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Beautiful! 👌
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